अथ चतुर्दश धूप पूजा
[दूहा]
गंधवटी मृगमद अगर, सेल्हारस घनसार II
धरि प्रभु आगल धूपणा, चउदमि अरचा सार II १ II
गंधवटी, कस्तूरी, अगर, शिलारस, और कपूर-बरास से निर्मित धुप प्रभु के सन्मुख रख कर (अग्र पूजा) की गई धुप पूजा, यह चौदमी पूजा है और यह सारभूत है.
[राग-वेलावल]
कृष्णागर कपूरचूर, सौगन्ध पंचे पूर,
कुंदरुक्क सेल्हारस सार, गंधवटी घनसार
गंधवटी घनसार चंदन मृगमदां रस मेलिये, श्रीवास धूप दशांग,
अंबर सुरभि बहु द्रव्य भेलियें II
वेरुलिय दंड कनक मंडं, धूपधाणूं कर धरे II
भववृत्ति धूप करंति भोगं, रोग सोग अशुभ हरे II १ II
काले रंग का अगर, कपूर चूर्ण, कुंदरुक्क (लोबान), शिलारस, बरास ऐसे पांच सुगंध से भरपूर ऐसे गंधवटी धुप से प्रभु पूजा करनी है. गंधवटी, कपूर, चन्दन, कस्तूरी, अम्बर आदि बहुत से सुगन्धित द्रव्य मिला कर, श्रीवास अर्थात चीड़ के वृक्ष का सुगन्धित तेल के साथ दशांग धुप मिला कर (दशांग धुप में पद्मपुराण के अनुसार कपूर, कुष्ठ, अगर, चंदन, गुग्गुल, केसर, सुगंधबाला तेजपत्ता, खस और जायफल से दस चीजें होनी चाहिए) अतिशय सुगन्धित धुप बनाया जाता है.
(धुप का वर्णन कर अब धूपदानी का वर्णन करते हैं). सोने के दंड में वैदूर्य मणि जड़ कर धूपदानी बनी है जिसे श्रावक अपने हाथ में लेकर (प्रभु के आगे धुप खेता है). धुप पूजा करनेवाला भववृत्ति रूप भोग को नष्ट करता है अर्थात जैसे धुप जलकर धुंआ बनकर उड़ जाता है और उड़ते हुए सुगंध फैलता है उसी प्रकार जीव भी जब अपने भोग वृत्तियों को जला कर नष्ट करता है तब उसके आत्मगुणों की सुवास देशों दिशाओं में फ़ैल जाती है. यह धुप पूजा रोग, शोक एवं सभी प्रकार के अशुभ को नष्ट करनेवाली है.
[राग-मालवी गौड़]
सब अरति मथन मुदार धूपं, करति गंध रसाल रे II देवा, करo II
झाल (धाम) धूमावली धूसर, कलुष पातग गाल रे Ii देवा, सुo II १ II
ऊध्र्वगति सुचंति भविकुं, मघमघै किरणाल रे II देo II
चौदमि वामांगि पूजा, दीये रयण विशाल रे II
आरती मंगल माल रे, मालवी गौड़ी ताल रे II सo II २ II
सभी अरती अर्थात अप्रीति को नष्ट करनेवाले धुप का रसपूर्ण सुगंध (प्रभु के आगे) करते हैं. अग्नि की ज्वाला से उत्पन्न धुषर वर्ण का धुआँ सभी कलुष और पाप को गलानेवाला है. (ऊपर उठता हुआ धुंआ) सुगंध से महकता हुआ भवी जीव के ऊर्ध्वगति को सूचित करता है और जीवन को किरणों से भर देता है. यह चौदवीं पूजा धुप की प्रभु के बायीं ओर की जाती है. इस पूजा के साथ ही विशाल दीपकों से आरती एवं मंगल दीपक करना है. यह पूजा मालवी गौड़ी राग में बनाई गई है.
अथ पंचदसम गीत पूजा
[दूहा]
कंठ भलै आलाप करि, गावो जिनगुण गीत II
भावो अधिकी भावना, पनरमि पूजा प्रीत II १ II
गले से अच्छी तरह आलाप कर प्रभु के गुणों का गीत गाओ और अधिक भावना भाओ, पंद्रहवीं पूजा के द्वारा प्रभु से प्रीत करो.
[आर्यावृन्त, राग-श्री]
यद्वदनंत-केवल- मनंत, फलमस्ति जैनगुणगानम II
गुणवर्ण-तान-वाद्यैर्मात्रा भाषा-लयैर्युक्तं II १ II
सप्त स्वरसंगीतैं:, स्थानैर्जयतादि-तालकरंनैश्च II
चंचुरचारीचरै - गीतं गानं सुपीयूषम II २ II
जैन तीर्थंकरों के गुणगान का फल अनंत केवलज्ञान रूप फल की प्राप्ति है. उन गुणों को तान, वाद्य, मात्रा, भाषा और ले के साथ गान करो. संगीत के सप्त स्वरों, जायतादि स्थानों से, तथा चंचुर चारी नामक ताल एवं गीतों से किया गुणगान अमृत वर्षी होता है. (चंचुर का अर्थ डिक्शनरी में दक्ष है। यह कोई ताल है ऐसा कोई उल्लेख मिला क्या?)
[राग-श्री राग]
जिनगुण गानं श्रुत अमृतं I
तार मंद्रादि अनाहत तानं, केवल जिम तिम फल अमितं II जिo II १ II
विबुध कुमार कुमारी आलापे, मुरज उपंग नाद जनितं II
पाठ प्रबंध धूआ प्रतिमानं, आयति छंद सुरति सुमितं II २ II
शब्द समान रुच्यो त्रिभुवनकुं, सुर नर गावे जिन चरितं II
सप्त स्वर मान शिवश्री गीतं, पनरमि पूजा हरे दुरितं II जिo II ३ II
जिनेश्वर देव के गुणों का गान करना सुनने में अमृत के समान है. तार, मन्द्र आदि सप्तकों में और अनाहत तान से गेय गीत केवल ज्ञान रूप अमित फल देनेवाले है. मृदंग, उपंग आदि से नाद उत्पन्न कर देव, कुमार एवं कुमारी अलाप करते हैं. अविच्छिन्न क्रम से दोषरहित पथ का सुव्यवस्थित प्रवंधन कर, ध्रुव अर्थात निश्चित मापदंड के साथ, प्रमाणोपेत, अलाप का विस्तार कर, छन्दवद्ध गायन मन को अति अनुरक्त करता है.
शब्द अर्थात बाग्यंत्र एवं वाद्य यंत्रों से उत्पन्न वर्णात्मक एवं ध्वन्यात्मक के सटीक प्रयोग से एवं सामान अर्थात एक ही स्थान से उच्चारण किये जानेवाले स्वरों के माध्यम से, जो परिवेश बनता है वह त्रिलोक को रुचिकर है. ऐसे मधुर गायन से देवगण एवं मनुष्य जिन चरित्र का गान करते हैं. सात स्वरों के परिमानवाला अर्थात सम्पूर्ण-सम्पूर्ण जाती के श्री राग में गेय यह पंद्रहवीं पूजा दुखों को दूर कर शिवफल प्रदान करनेवाली है.
शब्द अर्थात बाग्यंत्र एवं वाद्य यंत्रों से उत्पन्न वर्णात्मक एवं ध्वन्यात्मक के सटीक प्रयोग से एवं सामान अर्थात एक ही स्थान से उच्चारण किये जानेवाले स्वरों के माध्यम से, जो परिवेश बनता है वह त्रिलोक को रुचिकर है. ऐसे मधुर गायन से देवगण एवं मनुष्य जिन चरित्र का गान करते हैं. सात स्वरों के परिमानवाला अर्थात सम्पूर्ण-सम्पूर्ण जाती के श्री राग में गेय यह पंद्रहवीं पूजा दुखों को दूर कर शिवफल प्रदान करनेवाली है.
अथ षोडश नृत्य पूजा
[दूहा]
कर जोड़ी नाटक करे, सजि सुंदर सिणसार II
भव नाटक ते नवि भमे, सोलमि पूजा सार II १ II
[राग-शुद्ध नट्ट II शार्दुलविक्रीड़ितं वृंत]
भावा दिप्पीमणा सुचारुचरणा, संपुन्न-चंदानना,
सप्पिम्मासम-रूप-वेस-वयसो, मत्तेभ-कुम्भत्थणा I
लावण्णा सगुणा पिक्स्सरवई , रागाई आलावना
कुम्मारी कुमरावी जैन पुरओ, नच्चन्ति सिंगारणा II १ II
भावों से दीप्तिमान, सुन्दर चरणों वाली, पूर्ण चन्द्रमा के सामान मुखवाली, सुन्दर रूप व बेषभुषा वाली समवयस्क , मस्तक पर कलश रख कर (मत्तेभ या मत्थेभ), लावण्य एवं गुणों से युक्त कोयल के सामान मधुर स्वरवाली कुमारिकाएँ एवं कुमार (युवक-युवतियां) श्रृंगार करके विभिन्न रागों में अलाप करते हुए जिनेश्वरदेव के मंदिर में नृत्य करतें हैं.
[गंध]
तएणं ते अट्ठसयं कुमार-कुमरिओ सुरियाभेणं देवेणं संदिट्ठा,
रंग मंडवे पविट्ठा जिणं नमंता गायंता वायंता नच्चन्तित्ति II
उस समय एक सौ आठ देव एवं देवी सुरियाभ देव के साथ रंग मंडप में प्रवेश करते हैं, जिनेश्वर देव को नमन करते हैं, गाते हैं, बजाते हैं और नाचते हैं.
[राग-नट्ट त्रिगुण]
नाचंति कुमार कुमरी, द्रागडदि तत्ता थेइ,
द्रागडदि द्रागडदि थोंग थोगनि मुखें तत्ता थेइ II नाo II १ II
वेणु वीणा मुरज वाजै, सोलही सिंणगार साजे, तन-------
घणण घणण घूघरी धमके, रण्णंण्णंणं नानेई II नo II २ II
कसंती कंचुंकी तरुणी, मंजरी झंकार करणी शोभंति कुमरी,
हस्तकृत हावादि भावे, ददंति भमरी II नाo II ३ II
सोलमी नाट्क्कतणी, सुरीयाभें रावण्ण किनी सुगंध तत्ता त्थेई II
जिनप भगतें भविक लीणा, आनंद तत्ता थेई II नo II ४ II
कुमार एवं कुमारी नाच रहे हैं और विभिन्न बाद्ययन्त्रों के बोल निकल रहे हैं जैसे द्रागडदि द्रागडदि,
थोंग थोगनि, तत्ता थेइ आदि. बांसुरी, बीणा, मृदंग आदि बाद्ययन्त्र बज रहे हैं, और सोलह श्रृंगार करके कुमारिकाएँ घुंघरू की घमक के साथ नृत्य कर रहीं हैं. तरुणी स्त्रियां अपनी कंचुकियों को कस कर, मञ्जरी की झंकार के साथ, अपने हाथों से विभिन्न प्रकार की नृत्य मुद्राएं करते हुए भंवरी देते हुए वे कुमारियाँ शोभायमान हो रहीं हैं. जिस प्रकार यह सोलहवीं नाटक (नृत्य) पुजा सुरियाभ देव एवं रावण जैसों ने कर अपने भव को सार्थक किया था उसी प्रकार जिनेश्वर देव की भक्ति में लींन भवी जीव आनंद प्राप्त करते हैं.
थोंग थोगनि, तत्ता थेइ आदि. बांसुरी, बीणा, मृदंग आदि बाद्ययन्त्र बज रहे हैं, और सोलह श्रृंगार करके कुमारिकाएँ घुंघरू की घमक के साथ नृत्य कर रहीं हैं. तरुणी स्त्रियां अपनी कंचुकियों को कस कर, मञ्जरी की झंकार के साथ, अपने हाथों से विभिन्न प्रकार की नृत्य मुद्राएं करते हुए भंवरी देते हुए वे कुमारियाँ शोभायमान हो रहीं हैं. जिस प्रकार यह सोलहवीं नाटक (नृत्य) पुजा सुरियाभ देव एवं रावण जैसों ने कर अपने भव को सार्थक किया था उसी प्रकार जिनेश्वर देव की भक्ति में लींन भवी जीव आनंद प्राप्त करते हैं.
अथ सप्तदश वाजित्र पूजा
[आर्याव्रतम]
सुर-मद्दल-कंसालो, महुरय-मद्दल-सुवज्जए पणवो II
सुरनारि नंदितूरो, पभणेई तूं नंदि जिणनाहो II
देव दुंदुभि, कांसी, एवं मधुर आवाज करनेवाले मादल, शंख आदि सुरीले वाद्य के साथ स्वर्गलोक की देवियां मंगलकारक तुरही बजाकर घोषणा कर रहीं है की हे जिन नाथ आप आनंद मंगल कारक हैं.
[दूहा]
तत घन सुषिरे आनघे, वाजित्र चहुविध वाय II
भगत भली भगवंतनी, सतरमी ए सुखदाय II १ II
तत, घन, सुषिर एवं आनघ यह चार प्रकार के वाजित्र होते हैं, और ये चारों ही प्रकार के वाजे बज रहे हैं. सत्रहवीं पूजा में भगवंत की यह सुन्दर भक्ति सुख देनेवाली है.
[राग-मधु माधवी]
तूं नंदि आनंदि बोलत नंदी,
चरण कमल जसु जगत्रय वंदी II
ज्ञान निर्मल वचनी (बावन) मुख वेदी,
तिवलि बोले रंग अतिहि आनंदी II तूंo II १ II
भेरी गयण वाजंती, कुमति त्याजंती II
प्रभु भक्ति पसायें अधिक गाजंती, सेवे जैन जयणावंती,
जैनशासन, जयवंत निरदंदि II
उदय संघे परिप्पर-वदंती II तूंo II २ II
सेवि भविक मधु माघ आखे फेरी, भवि ने फेरी नप्पभणंती,
कहे साधु सतरमी पूज वाजित्र सब,
मंगल मधुर धुनि कहे (कर) कहंती II तूंo II ३ II
आनंद में, बोलने में भी आनंद (उनके गुण )जिनके चरण कमलों की तीनों लोक वंदना करता है. जिनका (केवल) ज्ञान निर्मल है, वचन भी निर्मल और तत्वज्ञान से परिपूर्ण है, ऐसे प्रभु की भक्ति में तबले के बोल भी आनंद रंग उत्पन्न कर रहे हैं. आकाश में भेरी (दुंदुभि) बज रही है, कुमति का त्याग हो रहा है, प्रभु भक्ति के प्रसाद से ज्यादा जोर से गाज रहा है. जयणा का पालन कर जिनेश्वर देव की सेवा होती है. जिनशासन जयवन्त और निर्द्वन्द प्रवर्त्तमान है. संघ का उदय है ऐसा (ये बाजित्र) बार बार कह रहे हैं. मधु माधवी राग में गेय यह गीत गा कर जो भविक जन प्रभु की सेवा करता है वह भव के चक्करों से बच जाता है. साधु कीर्ति कहते हैं की सत्रहवीं पूजा में सभी वाजित्र मंगल स्वरुप मधुर ध्वनि बोल रहे हैं.
कलश [राग-धन्याश्री]
भवि तूं भण गुण जिनको सब दिन, तेज तरणि मुख राजे II
कवित्त शतक आठ थुणत शक्रस्तव, थुय थुय रंग हम छाजे II भo १ II
अणहिलपुर शांति शिवसुख दाई, सो प्रभु नवनिधि सिद्धि आवजे II
सतर सुपूज सुविधि श्रावक की, भणी मैं भगति हित काजे II भo २ II
श्री जिनचन्द्र सूरि खरतरपति, धरम वचन तसु राजे II
संवत सोल अढार श्रावण धूरि, पंचमी दिवस समाजे II भo ३ II
दयाकलश गुरु अमरमाणिक्य वर, तासु पसाय सुविधि हुइ गाजे II
कहै साधुकीरति करत जिन संस्तव, शिवलीला सवि सुख साजे II भo ४ II
हे भविक जीव, हर दिन सूर्य के सामान तेज है जिनके मुखमण्डल का, उन जिनेश्वर देव के हर दिन गुणगान करो. पूजा के रचयिता साधुकीर्ति कहते हैं की शक्रस्तव के समान १०८ कवित्तों से यह पूजा गाते हुए उनपर स्तुति और भक्ति का रंग चढ़ा है. अणहिलपुर (जहाँ यह पूजा बनाई गई) में पूर्ण शांति है और यह शिवसुख देनेवाली है. यहाँ नव निधि और सिद्धि कारक श्रावक के करने योग्य यह सत्रह भेदी पूजा भक्ति की कामना से विधि पूर्वक बनाई है. (इस समय) खरतर गच्छाधिपति श्री जिनचन्द्र सूरी के धर्मवचन रूप शासन है. सम्वत सोलह सौ अठारह (ईश्वी सन 1561) के श्रवण बड़ी पंचमी के दिन इस पूजा को समाज के सामने प्रकाशित किया गया. अपने गुरु श्रेष्ठ दयाकलश अमर माणिक्य के प्रभाव से यह विधि बनाई जा सकी, जिनेश्वर देव के गुणगान करते हुए साधुकीर्ति कहते हैं की यह पूजा सभी सुखों के धाम शिव गति को प्राप्त करनेवाली है.
II इति सतरहभेदी पूजा सम्पूर्णा II
Vardhaman Infotech
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